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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

प्रतिहिंसा


जुगुप्सा से मेरा मन कडुवा गया। उफ्, कितने क्रूर हैं ये बूढ़े बाबा! उस छोटे से कुत्ते को कुबडी (छड़ी) से कौंचे जा रहे हैं। जरा भी दया-ममता नहीं। यदि कोई इन्हें इसी तरह टौंचे तो? घृणा से मैंने मुँह फेर लिया।

अभी दो दिनों पूर्व ही मैं इस शहर में कंपनी के काम से आया था। साथ में मेरा असिस्टेंट निखिल भी था। रवाना होने के एक दिन पूर्व स्टोर्स सेक्शन के इंचार्ज संपतलाल मेरे घर आए, ''मैंने सुना है निखिल भी आपके साथ चंद्रपुर जा रहा है?''

''हाँ।''

''फिर मेरा एक काम कर देंगे?''

''जरूर।''

''मेरे साले साहब मेहरचंद वहीं रहते हैं। उनकी लड़की अमिता अब सयानी हो गई है। मेरी इच्छा है निखिल व उसकी जोड़ी जम जाए...''

''यह तो बड़ी अच्छी बात है, ''मैंने फ़ोन उनके आगे कर दिया, ''आप अभी उन्हें एस.टी.डी...कर दो।''

''अभी नहीं। अभी किसी को कुछ नहीं बतलाना है। आप पहले निखिल को एक-दो बार वहाँ ले जाना। दोनों सहज भाव से एक-दूजे को देख लेंगे।

यदि आपको किंचित् भी आकर्षण महसूस हो, आप चर्चा छेड़ देना।''

''बड़ा अच्छा आइडिया है।'' बात मुझे भी जमी। मैंने डायरी में उनके साले साहब का पता नोट कर लिया। उनकी पत्नी अपनी भाभी के लिए साड़ियाँ व पत्र लाई थी, मैंने वे भी रख लिए।

अगले दिन मैं व निखिल चंद्रपुर रवाना हुए। पहुँचने के बाद दो दिनों तक हमें फुरसत नहीं मिली। आज रविवार होने से कोई काम नहीं होना था। हमने संपतलाल की ससुराल जाने का निश्चय किया। शहर की विकसित कालोनी में उनका छोटा-सा प्यारा बंगला था। लोहे का फाटक खोल हम अंदर आए। बैठक में संपतलाल के वृद्ध श्वसुर बैठे थे-अकेले, गुमसुम, उदास। आंखें बंद किए वे बैठे-बैठे झपकियाँ ले रहे थे।

हमारे पहुँचने पर उन्होंने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। मैंने प्रणाम कर अपना परिचय दिया और आगे बढ़कर मिसेज संपतलाल का पत्र व पैकेट उनके हाथ में रख दिया।

बेटी का पत्र पढ़ उनके होंठों पर क्षणिक मृदु-मुस्कान दौड़ गई। पत्र पढ़ उन्होंने अंदर आवाज़ लगाई।

दो मिनट बाद एक बीस-इक्कीस वर्षीया युवती ने बैठक में प्रवेश किया। युवती सुंदर व स्मार्ट थी। निखिल को पसंद आने योग्य।

मैंने नमस्कार के आदान-प्रदान के बाद उसके पिता बाबत पूछा।

''मम्मी-पापा यहीं कालोनी में काबरा अंकल के यहाँ गए हैं। उनके पिता की तबियत देखने। बस, आते ही होंगे, आप बैठिए।'' उसने जवाब दे हमें पानी पिलाया और वापस अंदर चली गई।

मैं बाबा से बतियाने के लिए उनकी ओर उम्मुख हुआ, मगर इतनी सी देर में वे पुनः झपकी लेने लगे थे। मैं अखबार उठा पढ़ने लगा। निखिल ने भी एक पत्रिका ले ली।

उसी समय अंदर से एक छोटा-सा झबरा कुत्ता आया। कुत्ता बड़ा प्यारा था। कोई भी उसके संग खेलने को लालायित हो जाता। उसे देख मैं तो उसकी ओर आकर्षित हुआ, बूढ़े बाबा चौंककर जागे। अभी तक वे अलसाए से कुरसी में धँसे झपकी ले रहे थे, कुत्ते को देखते ही उनकी नींद हिरण हो गई। एक झटके में वे तनकर बैठ गए। आँखों में शैतानी चमक उभर आई। उन्होंने उठाई अपनी कुबडी (छड़ी) और खच्च से कुत्ते के पेट में खौंप दी! यह कुछ इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि मैं व निखिल भौचक्के-से रह गए। हमें अपनी ही आंखों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह कमज़ोर वृद्ध इंसान ऐसा बचकाना मगर क्रूर कर्म कर सकता है? उधर कुत्ता अचानक हुए इस हमले से बुरी तरह बिलबिला गया था। उसने भागने की कोशिश की, बाबा ने घेर लिया और लगातार कुबड़ा चुभोने लगे। कभी दुम पर कभी पेट पर, कभी मुँह पर और...कभी...सीधे आँख पर।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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